Saturday, January 8, 2011

ये 'पत्थर' भी हर रात अपने

हँसते हुए चेहरे के पीछे गम भी होता है।
सूखी नज़रों के पीछे दिल नम भी होता है।।
मैं अगर नहीं रोता, तो क्या 
मेरे अन्दर कोई जज्बात नहीं।
मेरी नज़रों में अगर चमक है, तो क्या 
मेरी ज़िन्दगी में कहीं काली रात नहीं।।
सूरज के पीछे भी अँधेरा हो सकता है।
हंसने वाला भी छिप के रो सकता है।।
मैं तो चाहता हूँ कि सबके गम पी लूं।
सबकी काली रातें अकेले जी लूं।।
मैं जल जाता हूँ औरों की गरमी के लिए,
मैं गल जाता हूँ औरों की नरमी के लिए ।
मैं ढल जाता हूँ नए सूरज के लिए,
मेरी राख है किसी काजल की जरूरत के लिए।।
मगर, दुनिया कहती है 
मैं बेशरम हँसता हुआ पत्थर हूँ।
आंसुओं के सूखने से बने
रेत का समन्दर हूँ।।
उन्हें लगता है इस बेशरम पत्थर पर
उनके वार का जख्म शायद कुछ कम ही होता है।
मगर सच ये है दुनिया वालों, कि
ये 'पत्थर' भी हर रात अपने 
दामन में छिप-छिप के रोता है।।

No comments:

Post a Comment